• Uploaded @ : 4 years ago
  • Pages: 13
  • Size: 2.01 MB
  • Scan: Good
  • Views: 1401
  • Download: 576
सामवेदभाष्यम् (द्वितीयो भागः)

Yajurvedbhashyam (Chapter 40)

By : Pt. Harisharan Siddhantaalankar In : Hindi

वेद परमात्मा-प्रदत्त वैदिक ज्ञान है। पशु-पक्षी, कीट-पतङ्ग पूर्ण पैदा होते हैं। उनका ज्ञान स्वाभाविक होता है। मनुष्य अपूर्ण उत्पन्न होता है। उसका ज्ञान नैमित्तिक होता है। सृष्टि के आदि में मनुष्य को ज्ञान किसने दिया? निःसन्देह जगद् गुरु परमपिता परमात्मा ने। योगदर्शनकार महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं -
स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्॥ -योगदर्शन १.२६

वह परमात्मा पूर्व ऋषियों का भी गुरु है। और गुरु तो काल के कराल गाल में समा जाते हैं, परन्तु वह परमेश्वर तो काल का भी काल है। 
यह संसार विधि है और वेद परमात्मा द्वारा प्रदत्त उसका विधान है। हम इस संसार में कैसे रहें? हमारा अपने प्रति क्या कर्त्तव्य है? हमारा दूसरों-परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के प्रति क्या कर्त्तव्य है? हमारा ईश्वर के साथ क्या सम्बन्ध है? हम परमात्मा की उपासना क्यों करें, कैसे करें, कहाँ करें-आदि सभी बातों का समाधान हमें वेद से प्राप्त होगा। इन सब बातों को जानने के लिए वेद का पठन-पाठन अत्यावश्यक है। 
वेद चार हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

आकार की दृष्टि से सामवेद सबसे छोटा है। इसमें केवल १८७५ मन्त्र हैं। गौरव और महत्त्व की दृष्टि से यह किसी भी वेद से कम नहीं है। ऋग्वेद ज्ञानकाण्ड है, यजुर्वेद कर्मकाण्ड है सामवेद उपासनाकाण्ड है और अथर्ववेद विज्ञानकाण्ड है। जीवन का चरम और परम लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति है। सामवेद बहुत विस्तार के साथ इसी लक्ष्य की ओर इङ्गित करता है। सामवेद में सङ्केतरूप में योग के सभी अङ्गों- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-सभी का विवेचन है। योगाभ्यास कहाँ करें? क्यों करें, कैसे करें-आदि सभी तत्त्वों का विवेचन है। श्री कृष्णजी इस वेद पर मोहित थे, इसलिए उन्होंने कहा -
वेदानां सामवेदोऽस्मि। -गीता १०.२२

अर्थात् वेदों में मैं सामवेद हूँ।

सामवेद की प्रशंसा में छान्दोग्य उपनिषद् में कहा है

ऋचः साम रसः। - छान्दोग्य० १.१.२

अर्थात् साम ऋचाओं का सार है। 
तैत्तिरिय उपनिषद् के अनुसार ईश्वर-साक्षात्कार से कृतकृत्य जीवन्मुक्त पुरुष अपने आत्मानन्द की अभिव्यक्ति सामगान से ही करता है -
एतत् साम गायन्नास्ते, हाउ हा३उहा३उ इति।

अर्थात् अहो भाग्यम्, अहो ज्ञानम्, अहो ज्ञानम्।


सामवेद मन्त्रसंख्या की दृष्टि से सबसे छोटा है, कदाचित् इसीलिए सामवेद पर अनेक व्यक्तियों ने भाष्य किये हैं। उनमें दो-चार को छोड़कर कुछ तो व्यर्थ ही हैं, उदाहरण के रूप में श्रीराम शर्मा का भाष्य ऐसा ही है। उनका तो सारा भाष्य ही कूड़ा है। अंग्रेज़ी के भाष्य भी गौरवपूर्ण नहीं है। कहीं-कहीं तो सिद्धान्तविरुद्ध हैं, कहीं-कहीं अर्थ सर्वथा निरर्थक हैं। 
पं० हरिशरणजी का भाष्य अत्युत्तम है। यह सरल है, व्याकरण के अनुकूल है और गौरवपूर्ण है। इसे पढ़कर पाठक को वेद के महत्त्व और गुण-गरिमा का ज्ञान होगा। इस भाष्य में वेद की 
क उतरने का प्रयत्न किया गया है। कछ ऐसे तत्त्वों को उजागर किया है. जो अन्य किसी भाष्य में देखने को नहीं मिलेंगे। पढ़िए, वेद-सागर में गोते लगाइए, मोतियाँ लाइए। वेद की शिक्षाओं को जीवन में धारण करके अपने जीवन को सुजीवन बनाइए। स्वयं चमको और दूसरों को चमकाओ। ज्योतिष्मान बनो और सर्वत्र ज्योति फैलाओ। 

विदुषामनुचरः 
(स्वामी) जगदीश्वरानन्द सरस्वती

<p>सामवेद के द्वितीय भाग में मन्त्र संख्या 651 से 1875 तक है।</p>
  • Title : सामवेदभाष्यम् (द्वितीयो भागः)


    Sub Title : N/A


    Series Title : सामवेदभाष्यम्


    Language : Hindi


    Category :


    Subject : सामवेद


    Author 1 : पं० हरिशरण सिद्धान्तालङ्कार


    Author 2 : N/A


    Translator : N/A


    Editor : N/A


    Commentator : N/A


    Publisher : Shri Ghudmal Prahaladkumar Arya Dharmarth Nyas


    Edition : N/A


    Publish Year : 2012


    Publish City : Hindon City


    ISBN # : N/A


    https://www.vediclibrary.in/book/yajurvedbhashyam-chapter-40

Author's Other Books